माया पंचकम
लेखक - श्री. हितेन भुता
मुख्य विचार:
माया वह है जो अचल आत्मा को देह और दुःख का अनुभव कराती है।
जैसे जादू से भ्रम होता है, वैसे ही माया आत्मा को “मैं देह हूँ” का भ्रम देती है।
श्लोक 1 सार:
"नित्य, निरंजन आत्मा देह को ‘मैं’ मान लेती है — यह माया की लीला है।"
प्रेरक कथा:
"जेल की माफी और आत्मा की मुक्ति" — सत्य ज्ञान से ही छुटकारा।
संदेश:
🕉️ माया से मुक्ति केवल विवेक और आत्मस्मरण से संभव है।
मुख्य बात:
आत्मा पूर्ण, साक्षी और आनंदस्वरूप है।
माया की दूसरी चाल: देह को ‘मैं’ मानने का भ्रम पैदा करना।
शास्त्रीय संदर्भ:
👉 “स्वरूप को भूलकर बुद्धि ‘अहं’ को देह में स्थापित कर देती है।”
दृष्टांत:
जैसे आईने पर धुंध हो तो चेहरा साफ़ नहीं दिखता — वैसे ही माया ‘मैं’ को धुंधला कर देती है।
संदेश:
🕉️ “मैं कौन हूँ?” का ज्ञान ही माया से मुक्ति का मार्ग है।
मुख्य विचार:
यदि वस्तु में सुख होता, तो वह सबको, हर समय सुख देती।
माया की तीसरी चाल: “वस्तु = सुख” का भ्रम फैलाना।
शास्त्रीय संदर्भ:
“प्रिय वस्तु ही सुखद लगती है — यह माया का मोह है।”
दृष्टांत:
मरुस्थल में मृगजल देखकर प्यासा व्यक्ति धोखा खाता है — जैसे ही हम वस्तुओं में सुख ढूँढते हैं।
संदेश:
वास्तविक सुख वस्तु में नहीं, इच्छा की निवृत्ति में है।
🕉️ सुख भीतर है, बाहर नहीं।
मूल श्लोक: विभात्यज्ञानात् किञ्चिज्जडात्मनि...
भावार्थ: माया ऐसी शक्ति है कि वह ब्रह्म को जड़ देह में प्रकट कर देती है।
केवल शास्त्र ज्ञान पर्याप्त नहीं।
इन्द्रिय विषयों का आकर्षण ज्ञानी को भी भ्रमित कर सकता है।
माया मन और बुद्धि के बीच संघर्ष उत्पन्न करती है।
जैसे मंच पर जादूगर हाथी को उड़ता दिखाता है — जानकर भी मन भ्रमित होता है।
📿 निरंतर ध्यान (निदिध्यासना) और वासनाओं का क्षय ही माया से मुक्ति दिला सकता है।
श्लोक सार:
जब तक माया का प्रभाव है, तब तक "मैं शरीर हूँ" का भ्रम बना रहता है। "मैं शिव हूँ" का अनुभव नहीं हो पाता।
मुख्य बिंदु:
माया से आत्मा को "जीव" का बोध होता है।
यही अज्ञान का सबसे गहरा अंधकार है।
सत्य अनुभव से ही माया का नाश होता है।
निष्कर्ष:
"शिवोऽहम्" — यही आत्मा का वास्तविक स्वरूप है।
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